राजनीतिक चंदे पर तीखे सवालों के वही घिसे-पिटे जवाब | राजनीतिक चंदे पर खिलौने के वही घीसे-पिटे जवाब

27 मिनट पहलेलेखक: नवनीत गुर्जर, नेशनल भास्कर, दैनिक भास्कर

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राजनीतिक चंदे पर सुप्रीम कोर्ट में लगातार बहस चल रही है। चंदे की प्रक्रिया पर साहसी करने वालों ने कई सवाल किए। सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनाव आयोग के सामने कई सवाल रखे हैं। जवाब दीजिए तो जा रहे हैं, लेकिन अगल-बगल के। सीधा जवाब न तो सरकार के पास है और न ही चुनाव आयोग के पास।

लिमिटेड बांड की गोपनीयता को लेकर कई प्रश्न सामने आए जो लगभग अब तक तो अनुलेखित ही हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि वैश्वीकरण बांड में चयनात्मक (सिलेक्शनेटिव) आलोचना क्यों है? स्टेट बैंक जो यह बांड जारी करता है, उसे और मुद्रा कर रिटर्न के संयुक्त सरकार को तो छोटा पता चलता है, लेकिन अर्थव्यवस्था और लोगों को इस बारे में कुछ अता-पता नहीं रहता है।

फिर इस सवाल का कोई तार्किक जवाब नहीं मिला कि अगर निवेशकों का इस्तेमाल राजनीतिक निवेशकों को रिश्वत देने के लिए किया जाए तो इस पर रोक का क्या तरीका है? इसका जवाब दिया जाता है कि बाजीगरी जहां काले धन के चंदे के रूप में राजनीतिक चंदे का इस्तेमाल करती है, वहीं भारत में काले धन के चंदे के रूप में इसका इस्तेमाल किया जाता है।

सच तो यह है कि यूक्रेनी बांड भी कोई कर्मचारी नहीं है, इसका कहीं भी कोई लाभ नहीं है। एकमात्र सत्य प्रमाण यह है कि किस प्रकार का चंदा दिया जाता है? समस्या यह है कि जब तक राजनीतिक चंदे में पूरी तरह से पार्टियां नहीं आतीं, राजनीति में अभिनेता और गैर ईमानदार लोगों का प्रवेश मुश्किल है।

जहां तक ​​राजनीति में मशहूर हस्तियों के प्रवेश का मामला है, मध्य प्रदेश में ही देखें तो यहां 29 नामों के खिलाफ विभिन्न अदालतों में आरोप हो चुके हैं और इनमें से तय चौबीस से फिर से चुनावी मैदान में उतरे हुए हैं। गैर-कानूनी विरोधी आरोप तय किए जा चुके हैं, उन्हें सजा दी गई है फिर भी उन्हें चुनावी अयोग्य ठहराया जा सकता है। ऐसा हुआ तो अनोखे तरीके से फिर से चुना गया।

फिर वही प्रक्रिया, फिर वही खर्च जो बचा जा सकता था। अंतिम गंभीर मामलों पर भी इन नेताओं ने चुनाव लड़ने से क्यों नहीं पूछा? राजनीति करने वालों को आम लोग से ज्यादा सुविधाएं क्यों मिलती रहती हैं? आम आदमी तो न अपनी कमाई का कोई हिस्सा छुपा सकता है और न ही किसी नियम और क़ानून की जद से बच सकता है।

आख़िरी सारे नियम- क़ानून, निरीह आम आदमी और गरीब-गुरबे के लिए ही क्यों हैं?

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