37 मिनट पहलेलेखक: नवनीत गुर्जर, नेशनल भास्कर, दैनिक भास्कर
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मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावी मैदान में अब छुट्टी का मौसम है। जिनमें टिकटें नहीं मिलीं वे या तो अन्य प्रमुख दल के शरण में जा रहे हैं या कहीं भी नहीं मिल रहे हैं छोटे आश्रमों के रुख में। तीन ही राज्यों में छोटे दलों के टिकटों की घोषणा की गई है। वे जानते हैं कि बड़े आश्रम के असंतुष्ट नेता कहीं न कहीं शरण न मिलने पर आख़िरकार अपनी ही झोली में डालने वाले हैं।
राजस्थान में तो हाल यह है कि दोनों ही प्रमुख पार्टियाँ अपने-अपने समूह की अगली फिल्में जारी नहीं कर पा रही हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि उनका विरोध तूफान के डर से हो रहा है। ये पार्टियाँ अब एक दिन पहले ही नामांकित हो गईं, क्योंकि विरोध करने वाले मैथ्यू तब तक नामांकन की तारीख तक निकल गए और छोटे-मोटे विरोध भी जयकारों में खो गए।

राहुल गांधी 2 डिवीजन छत्तीसगढ़ दौरे पर हैं। उन्होंने आनंदंदगांव में सभा को संबोधित किया।
प्रोटोटाइप के अंदर भी गुटीय स्कूटर हैं और वे साफ-साफ दिखाई दे रहे हैं। किसी को मनाया जाता है तो किसी को कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल इस वक्त ये है कि टिकट न मिलने पर या किसी कारण से दल बदलने वाले नेताओं पर भरोसा क्यों किया जाए? किसी राजनीतिक दल के रूप में या उसके नेता के रूप में आप सरकार में शामिल हों या शामिल हों, जो भी निर्णय लेंगे, तो यह माना जा सकता है कि कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में इसमें जनता का हित होगा लेकिन दल गठबंधन में तो जनता का कोई हित नहीं होता।
यह तो पूरी तरह से नेताओं के निजी नौकर का मामला है। इसमें किसी दूसरे का क्या हित है? फिर हम इन दल बदलुओं को वोट क्यों देते हैं? जो कल तक किसी पार्टी को अपना बच्चा छोड़ रहा है, उसका सवाल पूछ रहा है। आज वही नेता, उसी पार्टी की अचानक निंदा करने लगे तो इसे आप क्या कहते हैं? जो नेता अपनी आस्था ही बदल लें, उन पर हम आम लोग विश्वास क्यों और कैसे करें?

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह रविवार को मध्य प्रदेश में थे।
ऐसा देखा है कि सत्ता और कुर्सी के लिए जब-तब पार्टी बदलने वाले नेताओं को हम बार-बार जिताते रहते हैं। इसी से उनकी सबसे बड़ी संख्या है। हमने कभी ऐसा क्यों नहीं सोचा कि जो अपनी पार्टी का नहीं हुआ, वो हमारे बारे में सोचेगा? हमारे हित निर्णय लेने की बात तो बड़ी दूर की है। कुल मिलाकर बात यह है कि हम चुनाव जैसे महत्वपूर्ण विषय में रुचि ही नहीं लेते। जबकि हक़ीक़त यह है कि हमारा एक वोट भी इतनी ताक़त रखता है कि किसी भी पार्टी या नेता को सत्ता में ला सके या सत्ता से दूर कर सके। इसके बावजूद हम अपनी ही ताकत को पहचान नहीं पा रहे हैं। हमें अपनी यह आदत, अपना यह रुख अब बदलना चाहिए। उद्देश्य यही होना चाहिए कि जीत हमेशा सच हो।